सोशल मीडिया वेबसाइट फेसबुक के नए आकड़ों के अनुसार भारत और ब्राज़ील में इसका इस्तेमाल करने वालों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है.
2013 की पहली तिमाही में भारत में फेसबुक का इस्तेमाल करने वालों की संख्या पिछले साल की तुलना में दोगुनी हुई है और संख्या हो गई है सात करोड़ अस्सी लाख.
पूरी दुनिया में फेसबुक का इस्तेमाल करने वाले लोग एक अरब से अधिक हैं जिसमें पहले नंबर पर अमरीका है.
दूसरे नंबर पर भारत और तीसरे नंबर पर ब्राज़ील.
भारत में ट्विटर की पैट शहरी इलाक़ों तक मानी जाती है लेकिन फेसबुक छोटे इलाक़ों तक भी पहुंचा है.
ऐसा क्या है फेसबुक में या सोशल मीडिया में कि वो भारत में इतना लोकप्रिय है.
फेसबुक क्यों खींच रहा है भारत में लोगों को.
क्या भारत के लोग अमर्त्य सेन के आरग्यूमेंटेटिव इंडियन यानी बहस करने वाले भारतीयों की परिभाषा पर सटीक बैठते हैं.
जब मैंने ये सवाल रखा प्रोफेसर पुष्पेश पंत के सामने तो उनका जवाब था हां भी और नहीं भी.
क्या हैं कारण
पंत कहते हैं, “वैसे तो अमर्त्य सेन बड़े आदमी हैं और उनके सिद्धांत को मान्यता भी मिली हुई है लेकिन मेरे गले से ये बात नहीं उतरती है. ये एक मिथक है कि भारतीय बातूनी होते हैं. अपनी बात के लिए जान देना और बैठ कर बतरस करना, अफवाहबाज़ी करना, गप्प लड़ाना अलग बातें हैं. बहस करने वाले भारतीय का तर्क छद्म बौद्धिकता है.”
उन्होंने कहा, “ये भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती. दलित समुदाय हो या गरीब लोग हों या फिर बाल मज़दूरों को ले लीजिए. वो कौन सी बहस करते हैं या करते रहे हैं. पुराने ज़माने में ब्राह्णणवादी शास्त्रार्थ और खंडन मंडन की परंपरा थी जिसे आगे बढ़ाया गया है इस तर्क के ज़रिए कि भारतीय स्वभाव से बहस करने वाले होते हैं.”
तो फिर सोशल मीडिया पर भारतीयों की बढ़ती संख्या को कैसे समझा जाए.
पुष्पेश कहते हैं कि इसके लिए हमें पीछे जाना होगा साल भर पहले अन्ना के पहले आंदोलन की तरफ.
उनके मुताबिक, “भारतीय लोगों की संख्या का फेसबुक पर बढ़ना अचरज की बात नहीं है. दो बातें हैं. एक तो व्यावसायिकता भी है और दूसरा पारंपरिक मीडिया का असफल होना है. मीडिया की भूमिका का नष्ट होना एक बड़ा कारण है. फेसबुक पर संख्या बढ़ी है अन्ना के पहले आंदोलन के समय. लोगों ने इस बारे में सोशल मीडिया के ज़रिए जाना.”
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
सिर्फ फेसबुक ही नहीं ट्विटर को भी इसमें जोड़िए. जहां पारंपरिक मीडिया इसकी जानकारी नहीं दे रहा था वहीं सोशल मीडिया पर इसकी जानकारी अधिक दी गई और लोग घरों से निकले.’’
व्यवसायिकता से पुष्पेश पंत का तात्पर्य भारत के बढ़ते बाज़ार से है जिसे ध्यान में रखते हुए दुनिया की और भारत की कई कंपनियां और उत्पाद फेसबुक जैसी जगहों पर आए हैं.
लोग इनके ज़रिए खरीदारी भी कर रहे हैं जो इस संख्या को बढ़ा भी रहा है.
पुष्पेश कहते हैं कि भारत में जनतंत्र है और लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आदत है. अगर सरकार नहीं देगी बहस करने तो लोग तो बहस करेंगे जहां भी मौका मिले.
यानी कि भारत में बहस की जगह कम हुई है और सोशल मीडिया ने ये जगह मुहैय्या कराई है.
उन्होंने कहा, “लोगों को जो मुद्दे महत्वपूर्ण लगते हैं उस पर अगर संसद में बहस नहीं होगी. टीवी चैनलों में अख़बारों में बहस नहीं होगी. कार्रवाई नहीं होगी तो लोग कहीं तो बात करेंगे. फेसबुक ये जगह उपलब्ध करवाता है. कहीं न कहीं.यूरोप में जहां लोकतंत्र असली मायनों में है वहां लोगों को फेसबुक पर बहस करने की ज़रुरत कम पड़ती है.”
‘लोगों को मिली आवाज़’
जामिया मिलिया इस्लामिया में कल्चर मीडिया और गवर्नेंस विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर तबरेज़ अहमद नियाज़ी इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि सोशल मीडिया ने भारत में उन लोगों को आवाज़ दी है जिनकी आवाज़ कोई नहीं सुनता.
वो कहते हैं, “भारत में जो तबका हाशिए पर है उसके लिए फेसबुक जैसे साधन बहुत सही साबित हुए हैं. हमने मध्य प्रदेश में सर्वे किया तो पाया कि लोग मोबाइल के ज़रिए फेसबुक का इस्तेमाल कर अपने जिलाधीश से बात कर पा रहे हैं. शिकायत दर्ज़ कर रहे हैं. ये महत्वपूर्ण बात है.”
नियाज़ी कहते हैं कि सोशल मीडिया और पारंपरिक मीडिया को जोड़ कर देखा जाना चाहिए.
वो कहते हैं कि सोशल मीडिया का प्रभाव पारंपरिक मीडिया पर भी पड़ रहा है और ये बहुत बढ़िया बात है.
वो कहते हैं, “पारंपरिक मीडिया कोई ख़बर न पब्लिश करे तो सोशल मीडिया पर लोग इसकी शिकायत करते हैं. भागेदारी करते हैं. कम्युनिकेशन एकदम डायरेक्ट हो जाता है. लोग जवाब देते हैं. ट्विटर पर तो नहीं लेकिन फेसबुक पर ठीक ठाक बहस हो जाती है. इससे तो लोगों की भागेदारी बढ़ी है व्यवस्था में. लोकतंत्र तो यही होता है न कि लोगों की हिस्सेदारी बढ़े.”
पारंपरिक मीडिया
विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर सोशल मीडिया, पारंपरिक मीडिया और इंटरनेट को मिलाकर देखा जाए तो पिछले दस वर्षों में भारत की आम जनता की भागेदारी हर हिस्से में बढ़ी है.
भाषाई माध्यमों और इंटरनेट पर काम कर चुके नियाज़ी कहते हैं कि अभी भी भारत में स्थानीय भाषाओं में उतनी एक्टिविटी नहीं है क्योंकि फेसबुक हो या ट्विटर इसकी अग्रणी भाषा अंग्रेज़ी ही है.
वो कहते हैं, “अगर भाषाओं के दृष्टिकोण से देखा जाए तो जापान और चीन में लोग अपनी भाषाओं का इस्तेमाल अधिक करते हैं लेकिन एक बात ये भी है कि सोशल मीडिया ने उन समुदायों को एक ताकत दी है जिन्हें हाशिए पर माना जाता था अब तक.”
यानी कि कई कारण हैं भारतीय लोगों के सोशल मीडिया में इतनी रुचि होने के.
पारंपरिक मीडिया की असफलताएं, कुछ करने की चाहत, मुद्दों पर बहस न हो पाना.
ये ऐसी बातें हैं जिसने लोगों को प्रेरित किया सोशल मीडिया और फेसबुक जैसी जगहों पर आने के लिए जहां वो अपनी बात रख सकें और अधिक से अधिक भागेदारी कर सकें.
सो. बी बी सी