गोरखनाथ मठ के महंत और उग्र हिंदू संगठन हिंदू युवा वाहिनी के संस्थापक योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाकर संघ परिवार ने गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश को हिंदुत्व की दूसरी प्रयोगशाला बनाने की शुरुआत कर दी है.
पर क्या उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी को मिली ज़बरदस्त चुनावी सफलता से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) हिंदू राष्ट्र के अपने मक़सद के एक क़दम और नज़दीक पहुँच गया है?
इस सवाल का जवाब आसान नहीं है और न ही हिंदू राष्ट्र को एक राजनीतिक हक़ीक़त में बदलना आसान है.
लेकिन नौ दशक पहले 1925 से शुरू हुई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यात्रा को देखें तो समझ में आएगा कि इस दौर में कई तरह के हिंदूवादी समाज-समितियां बनीं, फैलीं और फिर भुला दी गईं. पर आरएसएस अपनी राह से भटका नहीं.
संघ हमेशा बिना लाग लपेट के घोषित करता रहा है कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना उसका ध्येय है- ऐसा हिंदू राष्ट्र जिसमें हिंदू समाज की जातियां अपनी-अपनी नियत जगह बनी रहें पर राजनीतिक फ़ैसले करते समय ये विभाजन अप्रासंगिक हो जाए.
‘संघ की रणनीति’
यानी वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था में बिना छेड़छाड़ किए संघ सभी हिंदू जातियों को ‘समरसता’ की छतरी के नीचे ले आना चाहता है. पर इसके लिए उसे बार-बार हिंदू समाज को बताना पड़ता है कि वो चारों ओर से दुश्मनों से घिरा हुआ है.
इसके लिए कई बार नए-नए दुश्मन गढ़ने पड़ते हैं ताकि इस दुश्मन का भय दिखाकर हिंदू समाज को एकजुट किया जा सके. पर दुश्मन गढ़कर हिंदुओं को इकट्ठा करना संघ की व्यापक रणनीति का एक हिस्सा मात्र है- पूरी रणनीति नहीं.
उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में संघ-भाजपा की रणनीति का हर रंग नज़र आया था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क़ब्रिस्तान-श्मशान का हवाला देकर हिंदू और मुसलमानों को अलग-अलग खड़ा किया, लेकिन साथ में ग़रीब बस्तियों में गैस सिलेंडर भी पहुँचाए और कामगार तबक़े तक ये संदेश पहुंचाने में भी कामयाब रहे कि नोटबंदी दरअसल ‘अमीरों पर चोट’ है.
मोदी की लोकप्रियता
हालांकि लोकसभा चुनावों में बीजेपी को इससे भी ज़्यादा समर्थन मिला था पर तब उसे नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का असर माना गया था.
इसीलिए जनता दल (यूनाइटेड) के एक वरिष्ठ नेता ने तब मुझसे कहा था, “अब फिर से जाति चलानी पड़ेगी. वही हिंदुत्व का काट साबित होगी.”
पर हुआ ठीक उल्टा. जातीय समीकरण इस क़दर उलट-पुलट हो गए कि उत्तर प्रदेश की 85 आरक्षित विधानसभा सीटों में बहुजन समाज पार्टी सिर्फ़ दो सीटें जीत पाई.
हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला
अगर किसी को बची खुची ग़लतफ़हमी रही भी तो गोरखनाथ मठ के महंत योगी आदित्यनाथ को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी और संघ ने इसी संदेश को साफ़-साफ़ और बड़े-बड़े अक्षरों में यूपी के आसमान पर लिख दिया है.
इस फ़ैसले से ये भी स्पष्ट हो गया है कि गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनने जा रहा है.
एक मायने में गुजरात के मुक़ाबले उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व का प्रयोग ज़्यादा मुश्किल और ज़्यादा पेचीदा साबित होगा पर नरेंद्र मोदी ने जातीय विभाजन को बेकार साबित करके, क़ब्रिस्तान-श्मशान के ज़रिए हिंदू और मुसलमानों को एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ा करके और राष्ट्रवादी-राष्ट्रद्रोही की बहस का इस्तेमाल करके इस प्रयोग की बुनियाद डाल दी है.
अब मुख्यमंत्री के तौर पर इस प्रयोग को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी संघ परिवार ने योगी आदित्यनाथ को दी है. गुजरात में हिंदुत्व के प्रयोग और उसके सबक़ योगी के सामने हैं.
मुस्लिम विरोधी बयान
विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में एक ऐसा उदाहरण पैदा किया जिसकी स्मृति मुसलमान कभी भुला नहीं सकेंगे.
अब उत्तर प्रदेश के चार करोड़ मुसलमानों के सामने वो आदित्यनाथ हैं जिनके मुस्लिम विरोधी बयानों के कारण कई बार विवाद खड़े हुए हैं.
मसलन, फ़रवरी 2015 में उन्होंने ऐलान किया कि मौक़ा मिलने पर वो “देश की सभी मस्जिदों में गौरी-गणेश की मूर्तियां स्थापित करवा देंगे.”
ऐसे आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने पर ‘सेकुलरों’ या मुसलमानों को एतराज़ है तो हुआ करे.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर असमर बेग का कहना है कि मुस्लिम वोट बैंक एक मिथक है.
अब संघ-बीजेपी को उनकी परवाह कहां है क्योंकि इस शब्द पर से भारतीयों का विश्वास उठाने की जो मुहिम बीस-पच्चीस साल पहले लालकृष्ण आडवाणी ने शुरू की थी उसका असर अब महसूस किया जाने लगा है.
बीजेपी का उद्देश्य
कई मध्यवर्गीय परिवारों में अब धर्मनिरपेक्षता को जनतंत्र का एक महत्वपूर्ण मूल्य नहीं बल्कि कांग्रेसियों और ‘फ़ैशनेबल कम्युनिस्टों’ का ढकोसला समझा जाने लगा है.
पर यहां तक पहुंचने के लिए संघ और भारतीय जनता पार्टी ने ज़बरदस्त लचीलापन दिखाया.
उस दौर में जब महात्मा गाँधी पर हमला करने से पहले उनके कट्टर आलोचक भी दो बार सोचते थे और समाजवाद के ज़रिए बराबरी का सपना साकार करने की बात होती थी, उस दौर में अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘गांधीवादी समाजवाद’ को भारतीय जनता पार्टी का उद्देश्य घोषित कर दिया था.
किसी और राजनीतिक ताक़त की ओर से ऐसा लचीलापन दिखाने के उदाहरण कम ही मिलते हैं.
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को लाने का एक और मक़सद है.
राम मंदिर
भले ही अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनाने को बीजेपी ने चुनावी मुद्दा न बनाया हो पर बीजेपी नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान इसे बार-बार कुरेदा ज़रूर था.
बीजेपी के नेता और राज्यसभा सदस्य सुब्रह्मण्यम स्वामी ने बीबीसी से कहा भी था, “अगले दो साल में मैं राम जन्मभूमि मंदिर बनवा दूंगा.”
बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का अकेला मुद्दा सीधे-सीधे हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर चुका है.
अभी ये विवाद सुप्रीम कोर्ट में है और बीजेपी कहती रही है कि मामला अदालत के ज़रिए या आपसी सुलह-समझौते से निपटाया जाना चाहिए.
पर अगले कुछ बरसों में इस विवाद को किसी न किसी नतीजे तक पहुंचाने की कोशिश की जाएगी और अगर अयोध्या में मंदिर बना तो योगी आदित्यनाथ की सरकार इसका विरोध करने वालों के प्रति कैसा रुख़ अपनाएगी अभी इसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है.
सत्ता में भागीदारी से अलग कर दिए गए उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में तब क्या इतनी इच्छा शक्ति बाक़ी रह जाएगी कि वो मज़बूती से अपना विरोध भी दर्ज करवा पाएं?
आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश की इस नई प्रयोगशाला में कई प्रयोग किए जाने हैं. देखते रहिए.
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