हमारे संसाधन आदिवासी संघर्ष के कारण ही बचे हैं। आदिवासी भाषाओं को जितनी मान्यता मिलनी चाहिए थी उतनी आज तक नहीं मिली। आज भी कई जातियां सरकारी दृष्टि से आदिवासी की सूची में सम्मिलित नहीं हो पाई है। वैश्वीकरण के इस दौर में आदिवासियों से उनके स्रोत छीने जा रहे हैं। समय के साथ-साथ भुखमरी व अन्य समस्याएं भी बढ़ी हैं। मुख्यधारा की सोच में बदलाव आने पर ही आदिवासियों की स्थिति मंे बदलाव संभव है। ये विचार दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर ने मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के लोक प्रशासन विभाग तथा राजीव गाँधी जनजातीय विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में ’’वैश्वीकृत भारत में जनजातीय विकास‘‘ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में व्यक्त किए।
उद्घाटन समारोह में बोलते हुए राजीव गांधी जनजातीय विश्वविद्यालय के कुलपति श्री टी. सी. डामोर ने कहा कि वैश्वीकृत भारत में कुछ लोग बहुत आगे बढ़ गए और कुछ लोग बहुत पीछे छूट गए हैं। वैश्वीकरण के पहले और बाद के देश को हमें ठीक से परखना होगा। वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में आदिवासी की जमीन छिन जाना सबसे ज्यादा चिंताजनक है।
श्री डामोर ने अपने वक्तव्य मंे कहा कि संगोष्ठी का विषय बहुत व्यापक है। हमें संविधान में प्रदत्त आदिवासी के अर्थ से भी आगे सोचना चाहिए। वैश्वीकृत भारत में हुए विकास को भी सही ढंग से समझाना होगा। यह देखना होगा कि वैश्वीकृत दुनिया में हमारा राष्ट्र अपना स्थान कहाँ पर रखता है। पहले आदिवासी का जीवन कष्टप्रद था। उसके पास सुख सुविधाएं कम थीं, पहनने को कपडे कम थे फिर भी वह खुश था। उसके पास उसकी जमीन, जल और जंगल के साथ-साथ उसकी अपनी संस्कृति थी। आज के वैश्वीकरण के इस दौर में इन सभी पर संकट के बादल मंडारा रहे हैं। आदिवासी जीवन मेरा स्वानुभूत है इसलिए कह सकता हूँ कि पढ़ा-लिखा आदिवासी अपने मूल से कटता जा रहा है। वह अपने को सभ्य समझ मूल जीवन से दूर होता जा रहा है। जबकि उसे अपने वर्ग के उत्थान के व्यापक प्रयास करने चाहिए।
इस कार्यक्रम में छिंदवाड़ा के प्रो. आर. के. मिश्रा ने कहा कि वैश्वीकरण के दुष्प्रभाव कमजोर वर्ग पर पड़ रहे हैं। खासकर आदिवासी जीवन पर। मल्टी नेशनल कंपनियाँ बड़ी चतुराई से उनके अधिकारों को अपने हित में भुनाकर उन्हें हाशिये पर पहुँचा रही है। आज के मीडिया ने हमें सुरक्षा कवच दिया है। वह क्षण भर में हमारे साथ हो रहे अन्याय को जन-जन तक पहुँचा कर हमारी मदद करता है। हमारे मीडिया को उस आदिवासी की आवाज को भी पूरी ईमानदारी के साथ बुलंद करना चाहिए।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रही विश्वविद्यालय सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय की अधिष्ठाता
प्रो. फरीदा शाह ने कहा कि आज आदिवासी के आर्थिक विकास पर ध्यान देना जरूरी है। आदिवासी की अपनी जीवन शैली और अपनी दुनिया है। हमंे यह चिंतन करना होगा कि विकास के नाम पर कहीं हम उसके साथ छलावा तो नहीं कर रहे हैं। हमें उसे फ्रीडम ऑफ चाइस देनी होगी।
इससे पूर्व संगोष्ठी संयोजक प्रो. एस. के. कटारिया ने सेमिनार की रूपरेखा प्रस्तुत की। प्रो. कटारिया ने बताया कि इस दिन 33 शोध पत्रों का वाचन हुआ।
उद्घाटन सत्र के पश्चात कार्यक्रम के अंत में आभार प्रो. सी. आर. सुथार ने व्यक्त किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. गिरिराज सिंह चौहान ने किया।
आदिवासी संघर्ष से ही बचे हैं संसाधन: प्रो. नंदिनी सुंदर
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