राजसमंद/चारभुजा। मैं शनिवार की दोपहर अपनी झोंपड़ी में बैठी थी। बाहर बस्ती और आसपास की ढाणियों के लोगों का जमावड़ा लगा था।
शोर-शराबा, आरोप, सबक सिखाने की बातें चल रही थीं। अचानक कुछ लोग ऊपर आ गए। मुझे कहा, तू हत्यारी है। वरदी सिंह को तूने मारा है। इतना कहते ही उन्होंने मेरे पैर पकड़कर घसीटना शुरू कर दिया। सीढियों से खींचकर ले गए।
मैंने उन्हें रोकने की कोशिश की, चिल्लाई, रोई पर वे कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। मेरे पति को पीटा, बेटे को छत से नीचे फेंक दिया। चौपाल में ले जाकर खड़ा किया। पूरी जमात जमी थी। तमाशबीन उत्सुक थे मेरी इज्जत को तार-तार होते देखने के लिए।
वहां हंसी-ठिठोली हो रही थी। कैंची, कालिख और गधे का इंतजाम पहले से किया हुआ था। उन्होंने मेरे बाल काटे, फिर बदन से सारे कपड़े उतारे। वे हंसते जा रहे थे, मैं शर्म से मरती जा रही थी।
मुझे गधे पर बैठा दिया, कालिख पोत दी। मेरी आंखों से बहते आंसुओं को कालिख छिपा गई। मेरी आवाज भीड़ के कोलाहल में दब गई। थोड़ी देर बाद मैं खामोश हो गई।
बस्ती-सड़क पर घुमाया
प हले गांव के चौराहे पर, फिर वहां से पूरी बस्ती में होते हुए मुख्य सड़क पर आ गए। चारों तरफ पुरूष ही पुरूष। महिलाएं कुछ बोली ही नहीं। करीब ढाई किमी दूर थुरावड़ बस स्टैण्ड तक ले गए। वहां एक घण्टे तक रोके रखा। मुझे कह रहे थे, सच बताऊं।
पर मुझे नहीं पता, वे कौनसा सच जानना चाह रहे थे। मुझे कुछ पता हो तो बताऊं। मैं कुछ नहीं जानती। गिड़गिड़ाने, रोने के बावजूद उन पर कोई असर नहीं हुआ। भीड़ अपने उन्माद में थी।
मुझे फिर बस्ती की ओर ले जाया जा रहा था। लगभग पांच घण्टे हो चुके थे। घर से कुछ दूरी पहले ही पुलिस की कोई गाड़ी आई। लोगों को खबर हो गई। मुझे छोड़कर भाग गए। पुलिस ने मुझे कपड़े ओढ़ाए। फिर सीधे थाने ले गए।