सरकार कब डगमगाने लगती है ? ….. जब …

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सरकार का आत्मविश्वास कब टूटने लगता है ?
कब चीजें हाथ से निकलने लगती हैं ?
कब निष्ठावानों की प्रबल भावनाएं हवा होने लगती हैं?
कब आम नागरिक की भाषा में विश्वास से भरी सरलता की बजाय संदेह व अविश्वास दिखने लगता है?
कब एक स्थिति ऐसी आती है जब हालात पलटने लगते हैं और कई बार यह एकदम अचानक बिना किसी पूर्व चेतावनी के होने लगता है।
कब कुशासन व अराजकता के इतिहास में अनिष्ट का पूर्वाभास होने लगता है और असंतोष की फुसफुसाहट तेज होने लगती है और जो फिर एक तेज शोर में बदल जाती है।
चेतावनी के शुरुआती संकेत क्या हैं। व्यक्ति कब बिंदुओं को जोड़कर बड़ी तस्वीर बना लेता हैं?
जवाब हैं :-
जब भारतीय सेना संसदीय रक्षा समिति से कहती है कि “2018-19 के बजट ने हमारी उम्मीदों को धराशायी कर दिया है। रक्षा मद के लिए आवंटित राशि पर्याप्त नहीं है। हमने जो कुछ भी हासिल किया है यह उसके लिए बड़ा धक्का है”; |
जब 30,000 असंतुष्ट व नाराज किसान और आदिवासी नासिक से 200 किलोमीटर पैदल मार्च कर मुम्बई आ जाएं, सिर्फ अपनी बात सुनाने के लिए; |
जब सुप्रीम कोर्ट के जज केन्द्र सरकार को आदेश दें कि आधार लिंक करने को अनिश्चितकाल के लिए आगे सरका दिया जाए और स्पष्ट संकेत दें कि गरीबों के लिए लोक कल्याण कारी योजनाओं के अलावा किसी भी अन्य क्षेत्र में बायोमेट्रिक सत्यापन की अनिवार्यता लागू करने की कोई जरूरत नहीं है।
जब पुराने सहयोगी दाल जैसे शिव सेना तेलगुदेशम और अन्नाद्रमुक रोज़ संसद में हंगामा करने लगे और सरकार पर वादा खिलाफी और विश्वाश घात करने का आरोप लगाएं।
जब एक छोटे से सहयोगी जैसे जीतन राम मांझी इतना अपमानित महसूस करते हैं कि वे सत्तारुढ गठबंधन का त्याग दें, और एक अन्य नेता उपेन्द्र कुशवाहा अक्सर भाजपा की धौंस पर अपनी नाराजगी जताने लगे।
जब जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य की मुख्यमंत्री अपने ही वित्तमंत्री को इस शुबहे के कारण बर्खास्त कर देती हैं कि वह भाजपा के इशारों पर काम कर रहे हैं।
जब अर्थव्यवस्था लगातार डगमगा रही हो बावजूद इसके कि ग्रोथ के गणित और अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं,
के झूठे आशावाद से अर्थव्यवस्था की सुनहरी तस्वीर पेश करने की कोशिश की जाए।
जब दिमाग को सुन्न कर देने वाले वित्तीय घोटाले इस धारणा को झुठलादें कि सरकार की नीति भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करने की है।
जब समूची बँकिंग व्यवस्था भारी कुप्रबंध और भारी कर्ज के बोझ से कराहने लगे। | जब सी बी आई, ई डी, और आई टी विभाग जैसी जांच एजेंसियों का राजनैतिक विरोधियों को डराने व सताने के लिए बड़े पैमाने पर राजनैतिक दुरुपयोग होने लगे और जब मामूली से बहानों, जो किसी के भी गले नहीं उतरते हों, की आड़ में छापे डाले जाएं, गिरफ्तारियां की जाए, जबकि अन्य धोखेबाजों को खुला छोड़ दिया जाए, देश छोड़कर भाग जाने के लिए ;
जब पत्रकारों को उनकी आवाज दबाने के लिए और जजो को निष्पक्ष फैसला देने से रोकने के लिए मार डाला जाएं और उससे डर वे भ्रम का माहौल बनने लगे जब सूदुर राज्यों में आज्ञाकारी राज्यपालों और दलबदलुओं की मदद से जनादेशनहीं होने पर भी सरकार बना ली जाय जब इ वी एम में गड़बड़ी का संदेह हिंदी भाषी राज्यों में मिली भारी जीत  की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा दे। जब संसद सत्र को यह बहाना
बनाकर छोटा कर दिया जाए कि विपक्ष सहयोग नहीं कर रहा है तथा इस तथ्य;
की अनदेखी कर दी जाए कि गठबंधन | के घटक दल ही हैं जो वैल में जाकर नारेबाजी करते हैं, पोस्टर व बैनर लहराते हैं;
जब अब तक हतोत्साहित व हताश राजनैतिक दल अचानक ही अपनी जुझारु क्षमता पुनः हासिल कर ले और डिनर मीटिंग के जरिए या बैक
चैनल बातचीत से नए गठबंधन की संभावाएं तलाशने लगे।
रिपोर्ट – रमण स्वामी , राष्ट्रदूत 

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