दुनिया भर में पत्रकारों को कई बार बड़े मुश्किल हालात में काम करना होता है.
और बात चरमपंथी हमलों, बम धमाकों या ऐसे ही किसी और हादसे का डर लाजिम हो जाता है.
रिपोर्टिंग के दौरान जब हर तरफ खून बिखरा हो, लाशें बिछीं हों तो उससे जूझने वाले पत्रकारों पर पड़ने वाले इसके असर के बारे में कम ही बात की जाती है.
पेशावर यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग ने पत्रकारों के लिए ट्रॉमा सेंटर बनाकर एक पहल की है.
ज़ीशान अनवर पिछले पांच साल से पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े हैं. इन पांच सालों में सैकड़ों हमलों और धमाकों की रिपोर्टिंग कर चुके हैं.
लेकिन सोलह दिसंबर को पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर हमले की कवरेज़ के बाद उनकी दिमागी हालत ऐसी हुई कि उन्होंने दो दिन बाद ही पेशावर में पत्रकारों के लिए स्थापित किए गए ट्रॉमा सेंटर में मनोवैज्ञानिक मदद के लिए जाना पड़ा.
उन्होंने बताया, “मुझे नींद नहीं आ रही थी. 16 दिसंबर को सैन्य अस्पताल गया था. मैंने वहां बच्चों की लाशों को देखा था. मुझे बार बार उन्हीं का ख़्याल आ रहा था. मैं मानसिक दबाव में था. फिर मुझे पत्रकारों के लिए स्थापित ट्रॉमा सेंटर का पता चला और मैं यहां इलाज के लिए आ गया.”
दिमागी कसरत
कंपीटेंस एंड ट्रॉमा सेंटर पेशावर यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग में स्थापित किया गया है. इसके लिए यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग और जर्मन संस्थान ‘डीडब्ल्यू’ अकादमी ने वित्तीय सहयोग किया है.
ज़ीशान कहते हैं, “मनोचिकित्सक मेरा मनोवैज्ञानिक टेस्ट ले रहे हैं. मेरे इतिहास की जानकारी ली गई है. और कुछ मानसिक व्यायाम भी बताया है. मुझे लगता है अब मेरा मन पहले जैसा भटकता नहीं है. काम पर मेरा ध्यान लौट आया है.”
ज़ीशान उन नौ पत्रकारों में से एक हैं जो अब तक ट्रॉमा सेंटर से लाभान्वित हो चुके हैं.
खतरनाक देश!
यह केंद्र दो कमरों में चल रहा है जहां एक आराम करने का कमरा है जबकि दूसरा कमरा मनोचिकित्सीय सत्र के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है.
आराम करने के कमरे को नीला रंग दिया गया है, जो शांति और सद्भाव का प्रतीक है.
इन कमरों में सजावट भी ऐसी ही की गई है कि चिकित्सा के लिए आने वालों का हौसला बढ़े, उसे आराम मिल सके.
पाकिस्तान दुनिया भर में पत्रकारों के लिए एक अत्यंत ख़तरनाक देश माना जाता है.
जहां उन्हें केवल जान के जोख़िम का ही सामना नहीं करना पड़ता है बल्कि वे आर्थिक असुरक्षा के कारण भी गंभीर मानसिक दबाव का शिकार हैं.
मानसिक स्थिति
मनोचिकित्सक फरहत नाज बताती हैं कि पहले चरण में तीन महीने का पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया गया था जो काफी सफल रहा.
पत्रकारों को उनकी मानसिक स्थिति की गंभीरता के हिसाब से रोजाना या साप्ताहिक सत्र के लिए बुलाया जाता है.
वो कहती हैं, “पहले हम जानकारी लेते हैं. कुछ टेस्ट लेते हैं और फिर थेरेपी शुरू करते हैं. ज़्यादातर लोगों के व्यवहार पर काम किया जाता है कि वह ग़ुस्से और दबाव से कैसे मुक़ाबला कर सकते हैं और ऐसी स्थिति में उनकी प्रतिक्रिया क्या होना चाहिए.”
एक वेबसाइट ‘साउथ एशिया टेररिज़्म’ के अनुसार केवल पिछले साल पेशावर में 169 हमले और विस्फोट हुए.
हिंसक कार्रवाई की कवरेज
स्थानीय पत्रकारों को मनोवैज्ञानिक मदद और मार्गदर्शन देने के लिए स्थापित किए गए देश के पहले कंपीटेंस एंड ट्रॉमा सेंटर के अगुवा पेशावर यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष अल्ताफ़ ख़ान हैं.
अल्ताफ़ ख़ान कहते हैं, “इस क्षेत्र में मानसिक दबाव को गंभीरता से नहीं लिया जाता है. एक तो हम यह चाहते थे कि पत्रकारों में यह क्षमता पैदा हो कि वह किसी भी हिंसक कार्रवाई की कवरेज पर जाने से पहले खुद को इसके लिए तैयार कर सकें.”
उन्होंने बताया, “दूसरे यह कि जो समस्याएं पैदा हो चुकी हैं उनका इलाज हो सके. क्योंकि इस तरह की मानसिक समस्याएं केवल पत्रकारों को ही प्रभावित नहीं कर रही हैं बल्कि वे अपनी रिपोर्टिंग के जरिए लोगों को भी प्रभावित कर रहे हैं.”
सामाजिक व्यवहार
ट्रॉमा सेंटर में इलाज के लिए पत्रकार सीधे संपर्क कर सकते हैं. हालांकि इस हवाले से प्रेस क्लब भी ट्रॉमा सेंटर के साथ काम कर रहा है.
परियोजना शुरू करने से पहले आशंका थी कि शायद पत्रकार मनोचिकित्सा से जुड़े सामाजिक प्रभाव के कारण इस परियोजना में कोई अधिक रुचि न लें लेकिन अल्ताफ़ ख़ान पत्रकारों प्रतिक्रिया से संतुष्ट हैं.
वे कहते हैं, “मैं चाहूंगा कि महिला पत्रकार भी हमारे पास आएं. एक तो क्षेत्र में महिलाओं पत्रकारों की संख्या कम है. दूसरा मनोचिकित्सा करवाने को लेकर महिलाओं का सामाजिक व्यवहार भी बहुत उत्साहजनक नहीं है.”
जान की सुरक्षा
उन्होंने आगे कहा, “लेकिन जब इस परियोजना से लोग समूहों में जुड़ने लगेंगे तो मुझे यकीन है कि महिलाएं भी इसमें रुचि दिखाएंगी और अपने मानसिक दबाव के बारे में बात करेंगी.”
पेशावर के पत्रकार तो हर क्षण किसी हिंसक कार्रवाई की चपेट में हैं.
हालांकि देश के दूसरे शहरों में भी जान की सुरक्षा, वित्तीय कठिनाइयां और काम के बेतहाशा बोझ तले दबे पत्रकारों की स्थिति भी अधिक अलग नहीं है.
ट्रॉमा सेंटर परियोजना के वास्ते फिलहाल तीन साल तक के लिए धन उपलब्ध है लेकिन इसे देश के अन्य क्षेत्रों तक फैलाने का प्रस्ताव भी विचाराधीन है.
S. BBC hindi news