जीत की चमक – हार की हताशा

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पोस्ट न्यूज़. कहावत है कि जीतने वाले जीत की बात करते हैं और हारने वाले जीतने वालों की बात करते हैं। ऐसा ही कुछ राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी के साथ है। दोनों ही गुजरात विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी के स्टार प्रचारक हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी उत्तरोत्तर एक विजेता का आत्मविश्वास प्रोजैक्ट कर रहे हैं। इसके विपरीत, प्रधानमंत्री हताशा के लक्षण दिखा रहे हैं, कांग्रेस पर हमले कर रहे हैं, स्वयं को पीड़ित बताकर सहानुभूति जीतने का प्रयास कर रहे हैं और विदेशी ताकतों के लिप्त होने की आधारहीन थ्योरी दे रहे हैं।
सोमवार को मोदी द्वारा लगाया गया यह आरोप बुरी तरह उल्टा पड गया कि, मणिशंकर अय्यर के निवास पर एक तथाकथित गुप्त मीटिंग हुई, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व राज्यसभा चेयरमैन हामिद अंसारी और भारत के कई लब्धप्रतिष्ठ सेवानिवृत्त राजनयिकों का पाकिस्तान के उच्चायुत्त* एवं पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री के साथ एक कुटिल समझौता हुआ।
सामान्य रुप से कम बोलने वाले मनमोहन सिंह ने एक कडा वक्तव्य जारी किया है, जिसमें ना केवल, किसी षडयंत्र की बात को झूठा बताया गया है बल्कि प्रधानमंत्री मोदी को स्पष्ट शब्दों में झिडकी दी गई है और माफी की मांग की गई है।
तथापि, एक प्रधानमंत्री द्वारा अपने पूर्ववर्ती के विरुद्घ खतरनाक असत्य बातें बोलने के परिणामों के अतिरिक्त, मोदी के आरोप यह दर्शाते हैं कि देश में राजनीति की हवा का जो रुख बदल रहा है उसे लेकर उनकी निराशा कितनी बढती जा रही है और वो कितने विचलित हो रहे हैं। अपनी सत्ता के चौथे वर्ष में अचानक मोदी को असफल नीतियों तथा अपने गृह राज्य गुजरात में आसन्न हार का दबाव महसूस हो रहा है।
हारने वाले अपने दिल की गहराइयों में पहले से जान जाते हैं कि अंत निकट है और असफलता सामने है। लेकिन नरेन्द्र मोदी को बहुत गहराई में जाने की जरुरत नहीं है। सारे लक्षण सामने स्पष्ट नजर आ रहे हैं। स्थिति पलट गई है, उनका ’’पावर गेम’’ अब काम नहीं कर रहा।
बात सिर्फ गुजरात की ही नहीं है। अगर वे विधानसभा चुनावों में किसी तरह पार पा भी लेते हैं जिसकी संभावना प्रतीत नहीं हो रही है,  तो भी जो अन्य महत्वपूर्ण चीजें वे गँवा चुके हैं, उनको ध्यान में रखते हुये यह जीत बहुत ही मामूली सी सान्त्वना का काम कर पायेगी। वे अपराजेय होने की आश्वस्त छवि को खो चुके हैं। आम जनता के बीच उनकी विश्वसनीयता तेजी से खत्म होती जा रही है। कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि वे अपने पार्टीजनों तथा आर एस एस के अपने मूल परामर्शदाताओं का विश्वास भी खोते जा रहे हैं।
अपने सलाहकारों की बात पर कान न देने वाले नेताओं के सामने असली समस्या यह होती है कि अन्ततोगत्वा वो ऐसे लोगों से घिर जाते हैं जिनके पास कहने के लिये कुछ होता ही नहीं है। जैसा हदीस कहती है, अपना सब कुछ ही बुरी तरह से खो देने वाले नेताओं के साथ असली समस्या यह होती है कि वे समाप्त होते-होते, अपने किये गये अच्छे कार्यों को भी चौपट कर जाते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे आग लकडी को जला डालती है। बुरी तरह से पराजित व्यक्ति से ज्यादा खराब चीज केवल एक ही होती है, और वह है -क्रोधी प्रवृत्ति असभ्य का पराजित व्यक्ति, जो अपनी खामियों का दोष दूसरों के माथे मढ देता है।
नरेन्द्र मोदी का कांग्रेस-मुक्त भारत का सपना नष्ट हो गया है। बहुत कुछ ऐसा लगता है कि पुनर्जीवित कांग्रेस एक बडी वापसी कर रही है। केवल गुजरात में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी।
जब दिल्ली में उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने की औपचारिक घोषणा की जा रही थी, राहुल गांधी चुनाव अभियान में जुटे हुये थे। गुजरात में उनके चुनावी भाषण प्रभाव छोडते लग रहे हैं। वे भारी भीड आकॢषत कर रहे हैं। उनके शब्दों और लहजे में परिपक्वता नजर आ रही है।
दूसरी ओर, नरेन्द्र मोदी ने विकास के बारे में अपने वादों और अतिशियोक्तियों पर केन्द्रित होना छोड सा दिया है, जो उनका मुख्य चुनावी आधार माना जाता था। अब तो, भाजपा के सबसे अंध-समर्थक भी यह जान गये हैं कि गुजरात के मतदाताओं का आॢथक रूप से कमजोर वर्ग-दलित, पाटीदार, मुस्लिम और ओ.बी.सी., अब विनम्रता से यह दर्शाने को तैयार नहीं है कि विकास के लाभ टपकते धीरे-धीरे हुए उन तक पहुँचे हैं।
मोदी, जैसा कि राहुल गांधी वाक-चातुर्य से इंगित करते हैं, वैकल्पिक चुनावी मुद्दों को तलाश रहे हैं, ताकि विकास के मोर्चे पर विफलता पर से ध्यान हटाया जा सके। पहले उन्होंने ’नर्मदा का पानी’  गरीबों व शोषितों के दरवाजे तक ले जाने का दावा किया-पर उन्होंने उस समय यह धारणा त्याग दी जब उनके विरोधियों ने इंगित किया कि नर्मदा का पानी बडी फैक्ट्रियाँ चलाने के लिये मोडा जा रहा है, ना कि हरिजन बस्तियों तथा खेतों में जाने के लिये।
मोदी ने फोकस को बदलते हुए एक बार फिर विकास और वृद्घि की बात करने का प्रयास किया। उन्होंने विकास के प्रतीक के रूप में नैनो कार फैक्ट्री का उल्लेख किया। पर यह पासा उलटा पडा। टाटा समूह को 33000 करोड रूपये कम ब्याज पर ऋण तथा मामूली दरों पर भूमि दी गयी थी, पर यह छोटी कार सडकों पर कहीं नजर नहीं आती और साथ ही  गुजरात के बेरोजगार युवाओं को वादा की गयी नौकरियाँ भी नहीं मिलीं। राहुल गांधी द्वारा जोर से कही गयी इस साधारण बात पर स्थानीय जनता की इतनी सकारात्मक प्रतिक्रिया आयी कि हाॢदक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश यादव ने भी इसे अपनी रैलियों के भाषण में शामिल कर लिया।
मोदी ने नैनो को छोडा और कांग्रेस नेता के मंदिरों में जाने पर आक्रमण करना शुरू किया। इरादा संभवत: कांग्रेस की धर्म-निरपेक्ष छवि पर चोट करना था, पर परिणाम जो भाजपा के स्टार चुनाव प्रचारक चाहते थे, उससे बहुत अलग हुआ-मीडिया राहुल के पूजा-स्थलों पर जाने को अधिक कवरेज देने लगा, जिससे एक धर्म-परायण युवा, जिसके माथे पर तिलक और चेहरे पर देवदूत जैसी की मुस्कान है, की छवि और निखरी।
मीडिया ने भी पहले से कहीं अधिक इस बात को कवरेज देना शुरू कर दिया कि, राहुल गांधी वास्तव में अपनी रैलियों में क्या कह रहे हैं। उदाहरण के तौर पर-’’हमारे पी.एम. अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, जम्मू और कश्मीर की बात कर रहे हैं। मैं कुछ आश्चर्यचकित हूँ। आज उन्होंने 60-70 प्रतिशत खुद के बारे में बोला, बाकी समय  वो उन देशों के बारे में बोल रहे थे। मोदी जी, क्या आप गुजरात में अपने पिछले 22 वर्ष की सत्ता के बारे में बात करने से डरते हैं? हम इसकी बात करेंगे। चलो पिछले समय की नहीं, कम से कम गुजरात के भविष्य की बात तो करो। मोदी जी आपको विश्व भर में ले जायेंगे। पर वे गुजरात में 22 साल के भाजपा शासन की बात नहीं करेंगे। वे जय शाह के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते। वे राफेल जेट सौदे के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलते। वे किसानों को मिल रहे कपास के  दाम के बारे में नहीं बोलते।’’
मोदी केवल एक ही जवाब दे पाये हैं, जो कि एक जोशीली अपील थी-’’ गुजरात में भाजपा सरकार के आने के बाद, अनार, आलू और सब्जियों की उपज चार गुना बढ गयी है। अब, मैं प्रधानमंत्री हूँ।
इसलिये, आपके दोनों हाथों में लड्डू हैं। एक गांधीनगर में और एक दिल्ली में, अब आप दिल्ली आ सकते हैं और मुझे आवाज देकर कह सकते हैं, ’’नरेन्द्र मोदी, रूको, मुझे आपसे बात करनी है।’’ क्या आप को ऐसा प्रधानमंत्री मिलेगा। क्या आप को ऐसा अवसर मिलेगा कि अगले पांच साल, दिल्ली आपकी सेवा में खडी हो?’’
रमण स्वामी-
राष्ट्रदूत दिल्ली ब्यूरो

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