फ्रांस की राजधानी पेरिस में दस पत्रकारों सहित 13 व्यक्तियों की हत्या की जितनी निंदा की जाए कम है। किसी भी सभ्य समाज में हिंसा के लिए ना पहले कभी कोई स्थान था और ना आज है।
हिंसा से किसी समस्या का ना तो कोई हल निकला है और न निकलने की कोई उम्मीद है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगाने के प्रयास तब से चल रहे हैं, जब से ये दुनिया बनी है। दौर राजशाही का रहा हो, तानाशाही अथवा लोकतंत्र का, कभी शासकों की तरफ से कलम और जुबान पर रोक लगाने के प्रयास हुए तो कभी किन्हीं संगठनों की तरफ से।
पेरिस में एक मैगजीन के दस पत्रकारों की हत्या इसलिए कर दी गई क्योंकि उसमें छपे कार्टून हमलावरों को पसंद नहीं थे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करने वाले ऎसे लोगों को जितनी कड़ी सजा दी जाए, कम है। लेकिन इसी तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कहने, लिखने और विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी है।
हर कोई अपने-अपने तरीके से इस आजादी का उपयोग करता है लेकिन इसका लाभ उठाने वालों को अपनी लक्ष्मण रेखा भी तय करनी होगी। आजादी का मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करें। आजादी के मायने ये नहीं हो सकते कि किसी की आस्था पर हमला किया जाए।
कार्टून व्यंग्य को अभिव्यक्त करने का अच्छा माध्यम है लेकिन उसमें अश्लीलता को कोई कैसे और क्यों स्वीकार करे? स्वतंत्रता का मतलब स्वच्छंदता कतई नहीं हो सकता। पेरिस की जिस मैगजीन के पत्रकारों पर हमला हुआ वह मैगजीन समय-समय पर अनेक धर्मो पर कार्टून के माध्यम से व्यंग्य करती रही है, इसका पहले भी विरोध होता रहा है। ऎसे कार्टून छापती रही है जिसे परिवार के सदस्य साथ बैठकर देख नहीं सकते।
दुनिया में बड़ी संख्या ऎसे कार्टूनिस्टों की है जो बिना अश्लीलता के भी समाज, राजनीति और धर्म पर व्यंग्य कसते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करने वाले इस बात को समझें कि उनके कृत्य से किसी को बंदूक उठाने की नौबत ही नहीं आए।
ध्यान इस बात का भी रहे कि हम कबीलाई दौर में नहीं जी रहे हैं जहां हिंसा भी जायज मानी जाती हो और किसी की भावनाओं को आहत करने को भी गलत नहीं माना जाता हो। हम सभ्य और स्वतंत्र समाज में जी रहे हैं जहां स्वच्छंदता के लिए कोई जगह नहीं है।
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