क्या कांग्रेस को राहुल पर अब फैसला करने की जरूरत ?

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post. हर चुनाव चाहे किसी निकाय का हो या विधानसभा का दिन ब दिन कांग्रेस की हालत बाद से बदतर होती जा रही है . ऐसे में अब समय आगया है कि राहुल अपना आत्मनिरीक्षण करें और पार्टी के हित में बड़े स्तर पर कोई कडा फैसला लें . इससे पहले कि कांग्रेस पार्टी के आलाकमान का राष्ट्रव्यापी विरोध शुरू हो जाय उससे पहले सोनिया गाँधी राहुल गाँधी प्रियंका गांधी की जिम्मेदारी बनती है कि पार्टी की इस बिगडती दशा को दुरुस्त करें .

हाल के पांच राज्यों के चुनावी नतीजे साफ़ बताते है कि देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस पार्टी कितनी कमज़ोर पड़ गयी है . उत्तरप्रदेश के नतीजे साफ़ दर्शाते है कि जनता राहुल गाँधी को नकार चुकी है . राहुल गाँधी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के आगे कहीं टिक ही नहीं पाते .

पंजाब की जीत से राहुल बहुत ख़ुश नहीं हो सकते जहां पूरा दारोमदार कैप्टन अमरिंदर सिंह पर था.

कैप्टन अमरिंदर सिंह ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता अरुण जेटली को तब हराया था जब पूरा देश नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार था.

इस हिसाब से कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब के असल विजेता हैं. राहुल को सावधान रहना चाहिए क्योंकि उनके आलोचक इस जीत का सेहरा कैप्टन अमरिंदर सिंह के सिर बांध सकते हैं.

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अब समय आ गया है जब 10 जनपथ को राहुल गांधी के बारे में कड़ा फैसला ले . इस मामले में वरिष्ठ कांग्रेसियों की अलग अलग राय है . जिसके अनुसार कई कांग्रेसी अब चाहते है कि .

राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के बारे में नैतिक और व्यावहारिक रूप में गंभीरता से सोचना चाहिए.

विकल्प ये हो सकते हैं कि प्रियंका गांधी को पार्टी अध्यक्ष बना दिया जाए या सोनिया गांधी ही कांग्रेस अध्यक्ष बनी रहें.

कुछ कांग्रेसियों को ये भी लगता है कि राहुल गांधी ख़ुद को कांग्रेस संसदीय दल तक सीमित रखें और पार्टी संगठन की कमान प्रियंका गांधी को सौंप दें.

ये कुछ ऐसे विकल्प हैं जिससे गांधी परिवार को अस्थाई रूप से ही सही, लेकिन राहत मिलेगी और पार्टी मज़बूत होगी.

कांग्रेस की दशा के लिए ख़ुद राहुल गांधी को भी ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा.

है लोगों का मानना है कि अब कांग्रेस को शीर्ष से बदलने की जरूरत है . परिवार वाद से दूर हो कर राष्ट्र छवि वाले नए लोगों को आगे लाना चाहिए .

8 नवंबर 2016 को जब प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, तब कांग्रेस के भीतर इस बात पर मतभेद थे कि सावधानी से इसका स्वागत करें या इंतज़ार करें या पूरा दम लगाकर विरोध करें.

राहुल गांधी ने ज़मीनी रिपोर्ट का इंतज़ार किए बिना जल्दबाज़ी में इसे ग़रीब विरोधी, किसान-विरोधी बता दिया.

जबकि नगद नहीं होने की वजह से तमाम दिक्कतों के बावजूद आम जनता के एक बड़े हिस्से ने प्रधानमंत्री मोदी की मंशा पर सवाल तक नहीं उठाए.

सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार ने इस साल जनवरी में एबीपी न्यूज़ के लिए उत्तर प्रदेश में जनमत सर्वेक्षण किया था.

इसका नतीजा ये था कि नोटंबदी इस चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं है.

सवाल ये है कि कांग्रेस जैसी पार्टी जनता के इस मूड को क्यों नहीं भांप पाई?

महाराष्ट्र और ओड़िशा में स्थानीय निकाय के लिए हुए चुनाव के नतीजे भी कांग्रेस आलाकमान की संस्कृति को दर्शाते हैं.

संजय निरुपम की अस्वीकार्यता के बावजूद राहुल ने उन पर दांव लगाया और उसके बाद जो नतीजा आया, सब जानते हैं.

ज़िम्मेदारी का अभाव कांग्रेस संगठन को खोखला कर रहा है.

कांग्रेस महासचिव मोहन प्रकाश को पारस पत्थर समझा जाता था जो विफलता को सफलता में बदल देते हैं लेकिन महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात और अन्य राज्यों में उनके प्रभार में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई.

कांग्रेस के लिए सबसे बुरी बात ये रही कि सोनिया और राहुल पार्टी संगठन के विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग जातियों को जगह देने के विचार पर आंखें मूंदे रहे.

शरद पवार ने साल 1997 में कांग्रेस पार्टी को ‘तीन मियां और एक मीरा’ की पार्टी कहा था.

पवार तब सीताराम केसरी के ख़िलाफ़ पार्टी अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे थे. तब उनका इशारा सीताराम केसरी के अहमद पटेल, गुलाम नबी आज़ाद, तारिक़ अनवर और मीरा कुमार गठजोड़ की ओर था.

कांग्रेस के किसी भी जानकार से पूछ लीजिए, पार्टी में तब से अब तक हालात बहुत अधिक नहीं बदले हैं.

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