अदाकार :- अमिताभ, ऋषि कपूर, जिमित त्रिवेदी,
निर्देशक :- उमेश शुक्ला
संगीत :- सलीम सुलेमान,
अवधि :- 101 मिंनट
दोस्तो फ़िल्म से पहले एक छोटी चर्चा ज़रूरी है क्योंकि भारत मे भी अब परिवर्तित सिनेमा का दौर आ गया लग रहा है मिसाल के तौर पर न्यूटन, गुड़गांव, फुकरे, ओक्टोबर अब 102 नॉट आउट
कुछ फिल्मो के विषय ही आम इंसान के करीब होते हुवे गुजरते है क्योंकि फ़िल्म या तो मनोरंजक, या तो यथार्थवादी, या सामाजिक परिदृश्य को साकार करती होती है .
लेकिन कुछ फ़िल्में केवल विषय परक होती है जो कि मनोरंजन के गलियारे से होते हुवे एक सन्देश पहुचाती है दर्शकों तक
तो यह फ़िल्म ठीक इसी तरह की फ़िल्म है
कहानी
फ़िल्म की कहानी एक बाप बेटे और उसके बेटे पोते की कहानी है.
बाबूलाल बखरिया (ऋषि कपूर) जिसकी उम्र 75 साल है उसकी जिंदगी में महज डॉक्टर से मुलाकात और बेटा धीरू(जिमित त्रिवेदी) विदेश में रहता उसके इंतेज़ार के सिवा उसका बेटा पिछले 17 साल से पिता से वादे कर रहा है, मिलने का लेकिन झांसा देकर टाल देता है,कोई ज़िंदगी का उद्देश्य ही नही बचा है साथ ही वह खुद को बुढा तस्लीम कर चुका है, इनके पिताजी है दत्रात्र्य बखरिया जिनकी उम्र 102 साल है और इस उम्र में भी ज़िंदगी को जिंदादिली से जीते है साथ ही दुनिया के सबसे ज्यादा उम्र दराज 118 वर्षीय चीनी शख्स से ज्यादा ज़ी कर रेकॉर्ड अपने नाम करना चाहते है, बाबूलाल संकोची होने के साथ खुद को बुढा मान चुका है, ज़िंदगी को कायदे में जीने में विश्वास करता है लेकिन इनके पिताजी उन्मुक्तता के साथ जिंदादिली से ज़िंदगी को एन्जॉय करते हुवे जीते है. बेटा कैसा भी हो पिता को उसे खुश रखना ही कभी कभी उद्देश्य होकर साधना बन जाता है, पिता अपने बेटे के सामने कुछ शर्तें रखते है कि यह शर्ते पूरी करो या वृद्धाश्रम में जाओ. पिता पुत्र के प्रयासों में जीत किसकी होगी इसके लिए फ़िल्म देखी जा सकती है.
फ़िल्म इसी नाम के गुजराती नाटक पर आधारित है फ़िल्म का पहला हाफ दूसरे के मुकाबले कमज़ोर बना हैं
लेकिन दूसरा भाग रफ्तार से दौड़ता लगा, नाटक फ़िल्म के लेखक सौम्या जोशी है.
पटकथा विशाल पाटिल का है जो कि आपको गुदगुदाता है.
पिता पुत्र, पौत्र के रिश्ते पर कितना भी हास्य पैदा किया जाए अंत मे मानवीय संवेदनाओं का जागना लाज़मी है
यही फ़िल्म में भी देखने को मिला
फ़िल्म पूरी तरह से पारिवारिक होकर मनोरंजक है.कलाकारों में महानायक लाजवाब है, ऋषि के अलावा जिमित भी बढ़िया अभिनय कर गए है| 27 साल बाद जोड़ी का आगमन निराश नही करता|
संगीत सलीम सुलेमान का है जो कि ज्यादा प्रभावित नही करता. पार्श्व संगीत जॉर्ज जोजेफ का भी औसत ही है.निर्देशक उमेश इसके पहले भी वह माय गॉड, अक्षय, परेश को लेकर गुजराती नाटक कर ही फ़िल्म बना चुके है. उनका निर्देशन पहले हाफ में थोड़ा ठिला दूसरे हाफ में कहानी की रफ्तार अनुसार ही लगा. लेकिन इस विषय पर फ़िल्म निश्चय ही एक सट्टा खेलने जैसा था उसमें वह सफल लगे उमेश ने शुरूआत की थी बिंदास चेनल के सीरियल ठूँठते रह जाओगे से,
फ़िल्म को 3 स्टार्स
समीक्षक
इदरीस खत्री