पिछले महीनो में भारतीय रुपए की कीमत में आई अप्रत्याशित गिरावट ने न सिर्फ़ बैंक बाज़ार में बल्कि भारत में करोड़ों निवेशकों को सकते में डाल दिया है.
भारतीय शेयर बाज़ारों की हालत भी खस्ता ही चल रही है और कुछ लोगों का मानना है कि इसमें भी रूपए की घटती साख का योगदान है.
लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर इस गिरावट की वजह क्या है.
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भारतीय रुपए की कीमत में आई गिरावट के सवाल पर सरकार और केंद्रीय रिज़र्व बैंक को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
रुपए के गौरव को बचाए रखने की दिशा में क्या कोशिशें की जा रही हैं?
अमरीकी डॉलर के मुकाबले रुपए में आई रिकॉर्ड गिरावट और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में छाई मंदी ने शुक्रवार को भारतीय शेयर बाजार में कोहराम मचा दिया.
शेयर बाजार
62 रूपए का एक डॉलर और बीएसई सेंसेक्स में अगर एक ही दिन में 700 से ज्यादा अंकों की गिरावट आ जाए तो लाज़िमी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर उठने वाले सवाल कई गुना बढ़ जाएंगे.
भारतीय अर्थव्यवस्था में इन दिनों कुछ ऐसा ही मंज़र चल रहा है.
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ये वही अर्थव्यवस्था है जिसने कुछ साल पहले आई वैश्विक मंदी की मार का डट कर सामना किया था और बच के निकल भी गई थी.
लेकिन अब ऐसा क्या हुआ कि सरकार के मंत्रियों को दूसरे देशों में जाकर निवेश के लिए गुहार लगानी पड़ रही है.
आर्थिक मामलों के जानकार परन्जोय गुहा ठाकुरता कहते हैं, “उस समय भारत वर्ष का अर्थव्यवस्था में इतनी कमजोरी नहीं थी. सकल घरेलू उत्पाद में लगातार इजाफा हुआ था और मुद्रास्फीति भी इतनी नहीं बढ़ी थी. एक तरह से भारत की अर्थव्यवस्था उतनी कमजोर नहीं थी. इसी कारण से विश्वयापी आर्थिक संकट का असर भारत पर उतना नहीं पड़ा. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. एक तरह से पश्चिमी देश खासकर पश्चिमी यूरोप में अभी मंदी का दौर चल रहा है और इसका असर चीन में, भारत में और दूसरे विकासशील देशों पर भी पड़ रहा है.”
साख
अगर भारतीय रुपए के इतिहास पर गौर किया जाए तो साल 1991 में जब भारत सरकार ने अपने बाज़ार खोले थे और आर्थिक उदारवाद का सहारा लिया था. तभी से भारतीय अर्थव्यवस्था ने अर्से तक पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
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यहाँ पर भारतीय रिज़र्व बैंक की भूमिका को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता.
रिज़र्व बैंक ने हमेशा इस इस बात को सुनिश्चित किया कि भारतीय बैंक और बाजारों में रूपए की साख बनी रहे.
इसके नतीजे कई वर्षों तक साफ़ तौर पर दिखते रहे हैं.
बैंक ऑफ बडौदा के पूर्व कार्यकारी निदेशक आर के बक्शी कहते हैं, “1991 के बाद आयात बढ़ने लगे क्योंकि यह उद्योग क्षेत्र की जरूरत थी और लोगों की चाहतें भी बढ़ी थी. लेकिन उसके साथ साथ उदारीकरण की वजह से हमारे उद्योगों में बाहर से निवेश बढ़ा और निर्यात में भी इजाफा देखा गया और सबसे बड़ी बात यह रही कि आईटी के निर्यात ने हमारे महान घाटे को पाटने में मदद की.”
सोना
सवाल यह भी उठता है की एकाएक भारतीय अर्थव्यवस्था को ऐसा क्या हुआ कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में रूपए की साख गिरने लगी.
हालांकि कई मौके आए जब सरकार और रिज़र्व बैंक ने अमरीकी डॉलर के मुकाबले रुपए की गिरावट को रोकने की पूरी कोशिश की.
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बैंकों को केंद्रीय बैंक के पास रखने वाले पैसे पर ब्याज की दरें भी बढाई गईं लेकिन कुछ दिनों की रुकावट के बाद रुपए ने फिर से नीचे की ओर रुख कर लिया.
आरके बक्शी को लगता है कि सिर्फ यही एक वजह सिर्फ नहीं है.
वह कहते हैं, “पिछले दो सालों से कुछ ऐसा हुआ है कि लोग यह भारत में सुधारों की रफ्तार धीमी होने के बारे में सोचने लगे हैं. घरेलू मोर्चे पर भी परियोजनाएं पूरी नहीं हो पा रही हैं. भारत के बड़े उद्योगों ने भी बड़े कर्जे लेकर निवेश कर रखे हैं. इसके नतीजे के तौर पर आमदनी के हालात अच्छे नहीं दिख रहे हैं. विश्व व्यापार संगठन से किए गए वादों और जीवनस्तर में होने वाले बदलाव जैसे पहलुओं को मिलाजुलाकर देखें तो आयात में वृद्धि होती रही है. सोना भारतीयों की बड़ी कमजोरी रही है, तेल हम खरीदते रहे हैं. लेकिन हमारे निर्यात में वृद्धि नहीं हुई जबकि आयात बढ़ते रहे हैं.”
विदेशी मुद्रा
हालांकि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर निचले स्तर तक पहुंच जाने के बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक दिन पहले ही उम्मीद जताई थी कि सुस्ती का यह दौर ज्यादा लंबा नहीं खिंचेगा.
उन्होंने कहा था कि स्थिति में सुधार लाने के लिये सरकार कड़ी मेहनत कर रही है.
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वैसे इस आश्वासन के ठीक पहले रिजर्व बैंक ने दूसरे देशों में भारतीय कंपनियों की ओर से किए जाने वाले निवेश और देश से बाहर धन भेजने पर अंकुश लगाने समेत कुछ कठोर उपायों की घोषणा ज़रूर की थी.
इसका मकसद विदेशी मुद्रा के देश से बाहर जाने से रोकना बताया गया था .
केन्द्रीय बैंक ने घरेलू कंपनियों के लिये विदेशों में प्रत्यक्ष निवेश सीमा को उनकी नेटवर्थ के 400 प्रतिशत से घटाकर 100 प्रतिशत कर दिया. इससे सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों को छूट दी गई है.
चुनौतियां
रिजर्व बैंक ने यह भी स्पष्ट किया था कि सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनियों ओएनजीसी विदेश और ऑयल इंडिया द्वारा विदेशों में गैर-पंजीकृत इकाईयों में निवेश की यह सीमा लागू नहीं होगी.
आर्थिक मामले के जानकारों को लगता है कि सरकार के चुनौतियां ज्यादा है और उसके पास उपाय कम हैं.
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परन्जोय गुहा ठाकुरता कहते हैं, “सरकार कह रही है कि यह संकट विश्वव्यापी है. लेकिन सरकार की जो जिम्मेदारी है, उसने वह नहीं पूरी की. जो कदम पहले उठाए जाने चाहिए थे, वे नहीं उठाए गए.”
लेकिन सच्चाई यही है कि शुक्रवार को अगर भारतीय रुपया अमरीकी डॉलर के मुकाबले 62 पर गिर चुका है तो अब सरकार और रिज़र्व बैंक दोनों के पास इसे थामने के लिए समय फिसलता जा रहा है.
क्योंकि अंतररराष्ट्रीय बाज़ारों में इससे भारतीय रुपए की साख के साथ साथ निवेशकों के मंसूबों पर भी बट्टा लगता जा रहा है
सो. बी बी सी